जलवायु परिवर्तन और नदियों की सम्पोषणीयता
हाल ही में पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन हुआ, विकसित व् विकासशील देशों सहित कुल 195 देशों ने एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते में मोटे तौर पर जो विषय शामिल थे, उनमें से कार्बन उत्सर्जन में कमी ग्रीन हॉउस गैस संतुलन , वैश्विक तापमान वृद्धि में रोक व कमी प्रमुख थे। जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित इन व्यापक मुद्दों पर पहले से ही आम सहमति बनी हुई है पर टकराहट है तो इससे जुड़े उन तमाम मसलों पर, जिसमें कभी विकसित देश विकासशील देशों पर दवाव बनाते हैं तो कभी विकासशील देश इसका जिम्मेदार विकसित देशों को ठहराते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर चर्चा , विचार विमर्श व् गहमागहमी के लिए यह एक बड़ी खबर हो सकती है, किन्तु जो इससे ज्यादा महत्वपूर्ण खबर है वह है राष्ट्रीय स्तर पर की गयी पहल। यदि अपने देश में हम पिछले कुछ दिनों का आकलन करें तो हमें बड़ी संख्या में उन मसलों को सुलझाने में लोगों की सक्रिय व सामूहिक भागीदारी देखने को मिली है जिसमें जलवायु परिवर्तन को मानव गतिविधियों से जोड़ा गया है।
इसी से जुड़ा एक विषय है नदी सरंक्षण व नदी पुनर्जीवन का जिस पर लोगों का ध्यान गया है और देश भर में लोगों ने अपने स्तर से विभिन्न माध्यमों द्वारा अनेक गतिविधियों का आयोजन किया है। चाहे वो नदी सरंक्षण से जुड़ी कार्यशालायें हों , इससे सम्बंधित विषयों पर शोध हों , सेमिनार या कांफ्रेंस या फिर नदी व घाटों की सफाई में सामूहिक व संगठित प्रयास। नदी के प्रति जागरूकता बड़ी है और इस प्राकृतिक सम्पदा को स्वच्छ सुन्दर व अविरल बनाने में लोगों की भागीदारी भी।
नदी हमारे जीवन की आधारशिला है, नदियों के किनारे संस्कृति पनपती है समाज पलता है। नदी ना सिर्फ एक भौगोलिक सरंचना व प्राकृतिक संपदा है बल्कि इसके साथ इतिहास भी रचा बसा होता है । जब भी नदियों के देखरेख व सरंक्षण का मुद्दा उठाया जाता है तो हमारा ध्यान देश की बड़ी नदियों गंगा, यमुना आदि पर केंद्रित हो जाता है जबकि देश में कई छोटी और सहायक नदियां हैं बड़ी नदियाँ अपनी इन सहायक नदियों के साथ देश के बड़े भूभाग में बहती हैं। भारत का अपवाह तंत्र भू -आकृतियों की विकासात्मक प्रक्रियायों और वर्षा का परिणाम है।देश के वार्षिक वर्षण की कुल अनुमानित मात्रा 3,70,040 करोड़ घन मीटर है. इसमें से 1,67,753 करोड़ घन मीटर अर्थात लगभग 45.3 प्रतिशत जल देश की छोटी बड़ी सहित तमाम नदियों में प्रवाहित होता है ।.
नदियों के स्रोत, जल स्तर व प्रवाह को लेकर अक्सर बहस छिड़ती है, जलवायु परिवर्तन के चलते पर्वतीय क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों के उदगम स्थल को लेकर जहाँ एक ओर ग्लेशियर के पिघलने व नष्ट होने का खतरा मंडराता रहता है तो वहीँ वर्षा चक्र के असंतुलन व सूखा, बाढ़ की स्थिति के चलते प्रायद्वीपीय नदियों के विसर्जित जल राशि से सरंक्षण व बहाव को लेकर तमाम समस्यायें अलग से उत्पन्न होती हैं।
इन हिमालयी व बड़ी प्रायद्वीपीय नदियों के अतिरिक्त छोटी नदियों के अस्तित्व का एक अलग मुद्दा है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह नदियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन का शिकार हो रही हैं, जिन पर हम अधिक ध्यान नहीं दे पाते। किसी भी नदी में जल के मौसमी बहाव को उसकी प्रवृत्ति या व्यवस्था कहा जाता है. हिमालय और प्रायद्वीपीय नदियों की प्रवृत्तियों में भिन्नता बर्फ के पिघलने तथा मानसून पवनों द्वारा वर्षा से निर्धारित होती हैं। हिमालय की नदियों की प्रवृत्तियाँ मानसूनी और हिमानी दोनों हैं, जबकि प्रायद्वीपीय नदियां शुष्क ऋतु में लगभग पूर्णतः सूख जाती हैं।
यह नदियां केवल मानसून पर ही निर्भर हैं जलवायु परिवर्तन के चलते यदि मानसून पर असर पड़ता है तो उसका प्रभाव इन नदियों भी पड़ता है। यह एक बड़ा कारण है जिसके चलते देश की कई छोटी, बड़ी प्रायद्वीपीय व सहायक नदियाँ समाप्ति की ओर हैं, प्रवाह स्तर की निरंतरता व बहाव में रूकावट जैसी बाधाएं एक अलग मुद्दा है।
जल की कमी, स्थानिक और ऋतुवत असमानता बढ़ती मांग से फैलते प्रदूषण की दृष्टि से जल संसाधन का सरंक्षण आवश्यक गया है। इस दिशा में पहला कदम वर्षा जल संग्रहण और इसके अपवाह को रोकना है दूसरा कदम है छोटे -बड़े सभी नदी जल संभरों के जल संसाधनों का वैज्ञानिक प्रबंधन, तीसरा कदम है जल को अप्रदूषित रखना। इन सभी छोटी बड़ी नदियों के रखरखाव के लिए आवश्यक है देश के सभी हिस्सों में बहने वाली नदियों के अपवाह तंत्र तथा वहाँ के स्थानिक सामाजिक भौगोलिक परिवेश की जानकारी प्राप्त करना, ताकि रखरखाव व प्रबंधन में उभर रही सभी रुकावटों को दूर किया जा सके और जलवायु परिवर्तन पर छिड़ी अंतर्राष्ट्रीय बहस को राष्ट्रीय चिंतन की दिशा में मोड़ा जा सके इससे ना सिर्फ हमारी नदियों का रखरखाव हो पायेगा बल्कि सतत विकास की प्रक्रिया में एक नया व व्यापक दृष्टिकोण भी प्राप्त होगा।
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